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मेरे कपड़ों से न आँको मुझे
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मेरे कपड़ों से न आंको मुझे.... मेरे कपड़ों से न आंको मुझे मैं गुज़रूँ तो न ताको मुझे है ज़िन्दगी मेरी तो पहनावा भी मेरा होगा ना ऐ समाज के ठेकेदारों यूँ बातों के तंज न मारो मुझे... मेरे कपड़ों से न आंको मुझे !!!! सुबह को घर से जाती थी रात को घर में आती थी... इसके साथ तो गलत होना ही था छोटे -छोटे कपड़ो में जो इतराती थी !!! दोष मेरे छोटे कपड़ो का था, क्या इसलिए जागी नीयत तुम्हारी? फिर क्यों चार साल की वो मासूम बेटी यूँ तुझसे डर कर भागी !! दोष मेरे शहरी लहज़े का था , क्या इसलिए बना तू शिकारी? फिर क्यों गाँव की वो सलवार -सूट वाली लड़की भी भेंट चढ़ी तुम्हारी !!! कपड़े बेशक मेरे छोटे थे लेकिन दिल था बिल्कुल साफ़... तुम बाँध मुखोटा अच्छाई का न जाने और कितने करोगे पाप!! "थोड़ा ढंग का पहनों थोड़ा धीरे बोलो बेवजह बात पर अपना मुँह न खोलो" बचपन से ही हर लड़की को यही तमीज़ सिखाते हैं क्यों ? क्योंकि तुम कहलाओ माँ-बाप महान ? यदि कुछ तमीज़ बेटों को भी सिखायी होती बचपन से तो शायद आज नहीं बनता वो इतना बड़ा हैवान... इतना बड़ा हैवान! _Nisha Gola
ज़रा सी रोशनी भी...
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ज़रा सी रोशनी भी मिटाने को अंधकार काफी है बुझे जो चिराग आँधियो में कोई जलाने को मशाल काफी है! हो अंधेरा कितना भी घेरे चमक जुगनू की काफी है आकाश में हो बादल घनेरे गड़गड़ाती बिजली की धार काफी है अंतर्मन अस्पष्ट - धुंधला एक जलती लौ ज्ञान की काफी है समेटने को हर टूटा - बिखरा उम्मीद की ज़रा सी रोशनी भी काफी है! _ Nisha Gola